Monday, December 19, 2011

Daredevil Ram Prasad Bismil

बिस्मिल की बलिदान-कथा

आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,
मातृभूमि पर मिटने वाले अमर शहीद महान की.

जन्म शाहजहाँपुर में पंडित मुरलीधर के यहाँ लिया,
माता मूलमती ने उनको पालपोस कर बड़ा किया.
स्वामी सोमदेव से मिलकर जीवन का गुरुमन्त्र लिया,
भारत की दुर्दशा-व्यथा ने उनको बिस्मिल बना दिया.

क्रान्ति-बीज बोने की मन में कठिन प्रतिज्ञा ठान ली,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

पढ़ते थे तब गये लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया,
बागी होकर वहाँ तिलक का बहुत बड़ा सम्मान किया.
अनुशीलन दल के लोगों से मिलकर गहन विचार किया,
हिन्दुस्तानी-प्रजातन्त्र का संविधान तैयार किया.

सुनियोजित ढँग से की थी शुरुआत क्रान्ति-अभियान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

मैनपुरी-षड्यन्त्र-काण्ड में बरसों आप फरार रहे,
कई किताबें लिखीं भूमिगत रहे समय के वार सहे
आम मुआफी में जब देखा घर के लोग पुकार रहे,
बिस्मिल अपने वतन शाहजहाँपुर आकर बेजार रहे.

घर वालों के कहने पर कपडे की शुरू दुकान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

दीवानों को अमन-चैन की नींद कहाँ आयी कभी,
इस चिन्ता में बिस्मिल को दूकान नहीं भायी कभी.
असहयोग आन्दोलन ठप हो गया खबर आयी तभी,
बिस्मिल को गान्धीजी की यह नीति नहीं भायी कभी.

छोड़ दिया घर पुन: पकड़ ली राह क्रान्ति-अभियान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

युवकों को खोजा जाकर पहले शाखाओं के जरिये,
चिनगारी सुलगाई ओजस्वी कविताओं के जरिये.
ज्वाला भड़काई भाषण की गरम हवाओं के जरिये,
हर सूबे में खड़ा किया संगठन सभाओं के जरिये.

इन्कलाब से फिजाँ बदल दी सारे हिन्दुस्तान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

स्वयं किताबें लिखीं, छ्पायीं,बेंची, फिर जो धन आया,
उससे शस्त्र खरीदे फिर बाग़ी मित्रों में बँटवाया.
सैन्य-शस्त्र-संचालन का था बहुत बड़ा अनुभव पाया,
इसीलिये बिस्मिल के जिम्मे सेनापति का पद आया

फिर क्या था! शुरुआत उन्होंने की सीधे सन्धान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

एक जनवरी सन पच्चिस को इश्तहार दल का छापा,
जिसको पढकर अंग्रेजों के मन में भारी भय व्यापा.
जिसकी जूती चाँद उसी की हो ऐसा अवसर ताका,
नौ अगस्त पच्चिस को मारा सरकारी धन पर डाका.

खुली चुनौती थी शासन को सरफ़रोश इंसान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

फिर क्या था बौखला उठी सरकार होंठ उसके काँपे,
एक साथ पूरे भारत में मारे जगह-जगह छापे.
बिस्मिल को कर गिरफ्तार चालीस और बागी नापे,
सबको ला लखनऊ मुकदमे एक साथ उनपर थोपे.

इतनी बड़ी बगावत कोई बात नहीं आसान थी,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

तख़्त पलटने की साजिश का बिस्मिल पर इल्जाम लगा,
लूटपाट हत्याओं का जिम्मा भी उनके नाम लगा.
कुछ हजार की ट्रेन डकैती पर क्या ना-इन्साफ हुआ,
पुलिस-गवाह-वकीलों पर सरकारी व्यय दस लख हुआ.

पागल थी सरकार लगी थी बजी उसकी शान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

जगतनारायणमुल्ला जैसे सरकारी वकील आये,
पर बिस्मिल के आगे उनके कोई दाँव न चल पाये.
आखिर उनकेअपने ही दल में गद्दार निकल आये,
जिनके कारण बिस्मिल के सँग तीन और फाँसी पाये.

बीस जनों को हुई सजाएँ साजिश थी शैतान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

जैसे ही यह खबर फैसले की अखबारों में आयी,
फ़ैल गयी सनसनी देश में जनता चीखी चिल्लायी.
नेताओं ने दौड़-धूप की दया-याचना भिजवायी,
लेकिन वायसराय न माना कड़ी सजा ही दिलवायी.

किसी एक को भी उसने  बख्शीश नहीं दी जान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,

आखिर को उन्नीस दिसम्बर सत्ताइस का दिन आया,
जब बिस्मिल, अशफाक और रोशन को फाँसी लटकाया.
दो दिन पहले सत्रह को राजेन्द्र लाहिड़ी झूल गये,
किन्तु हमारे नेता-गण उन दीवानों को भूल गये.

जिनकी खातिर मिली हमें आज़ादी हिन्दुस्तान की,
आओ! तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की,


Wednesday, December 7, 2011

Who cometh next to share?

देखें कौन आता है यह फर्ज़ बजा लाने को?


ईंट  से  ईंट  बजा दी   ये सुना था हमने ,
आज वह काम अयोध्या में हुआ दिखता है  .


यह समन्दर  है जो अपनी पे उतर आये तो ,
सारी दुनिया को ये औकात बता सकता है .


आज खतरा नहीं  हमको है मुसलमानों से ,
घर में जयचन्द  की औलादें बहुत ज्यादा हैं .


मेरा कहना है कि इन  सबसे निपट लो पहले ,
कौम को अपनी मिटाने पे   ये  आमादा    हैं .


हम तो लोहू की सियाही  से ये सब लिखते हैं ,
ताकि सोया ये लहू जागे कसम खाने को .


हम किसी जन्म में थे 'चन्द' कभी थे 'बिस्मिल' ,
देखें कौन आता है यह फर्ज़  बजा लाने को ?

टिप्पणी : यह कविता मैंने अयोध्या काण्ड के बाद लिखी थी परन्तु परिस्थितियाँ अभी भी ज्यों की त्यों हैं.

Tuesday, December 6, 2011

Remembering No War Zone "AYODHYA"

वह मस्जिद है किस काम की?

है इतिहास गवाह अयोध्या जन्म-भूमि है राम की.
कौम बावरी हो जाये वह मस्जिद है किस काम की?

यहाँ न कोई हुआ युद्ध इसलिए अयोध्या नाम है.
बाबर ने मस्जिद बनवाकर किया इसे बदनाम है.
जिसमें है इतिहास दफ़्न वह जगह भला किस काम की?
उसे हटा देने में कुछ तौहीन नहीं इस्लाम की.

पढना तुम इतिहास बाद में पहले पढो कुरान को,
फ़र्क नहीं है पहचानो गर खुदा और भगवान को.
नेक काम जो करे जहाँ में कहलाता इंसान है.
जो खुद का एहसास कराये "खुद-आ" या कि भगवान है.

कौन नहीं जानता राम को खुद इतिहास गवाह है.
जिसने दुनिया को दिखलायी मर्यादा की  राह है.
उसका मन्दिर बने यहाँ पर मर्जी यही अवाम की.
कौम बावरी हो जाये वह मस्जिद है किस काम की?

बाबर क्या था हमलावर था जिसने कई गुनाह किये.
एक नहीं,  दो नहीं, सैकड़ों- लाखों लोग तबाह किये.
झण्डा फहराया जुल्मों का हक़ छीने इंसान के.
उसको आप बरावर तौलें बदले में भगवान के.

ऐसा कभी नहीं होगा जीते जी हिन्दुस्तान में.
बहुत बड़ा है फर्क़ यहाँ पर बाबर औ' भगवान में.

ठेकेदारों को बतला दो रहम करें इस्लाम पर.
खामोखाँ को बहस न छेड़ें मर्यादामय राम पर.
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-इसाई रैयत हैं सब राम की.
मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारा तो सीढी हैं बस नाम की.

खुद हैं सब फिरकापरस्त क्यों बी0जे0पी0 बदनाम है?
गान्धी की समाधि पर किसने लिखवाया "हे राम" है?
या तो गान्धी की समाधि से नाम हटा दो "राम" का.
या फिर से मन्दिर बनवा दो उसी जगह श्रीराम का.

बाबर था बावरा मगर ये बाबर के भी बाप हैं.
मस्जिद के ढाँचे को लेकर करते व्यर्थ प्रलाप हैं.
ये सेकुलरवाद  पर  सच में  एक बदनुमाँ दाग हैं.
किसी फूस के छप्पर पर ये रखी हुई इक आग हैं.

इन्हें हटा दो या दिखला  दो सच्चाई का रास्ता.
राम हमारे महापुरुष हैं बाबर से क्या वास्ता?
उनका मन्दिर बनने में ही इज्जत है इस्लाम की.
कौम बावरी हो जाये वह मस्जिद है किस काम की?


शब्दार्थ: बावरी=पागल, बावरा=सनकी

Tuesday, November 29, 2011

A thought on Education

भारत में अंग्रेजी शिक्षा के दुष्परिणाम

भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में हुआ. मिस्टर चार्ल्स ग्रान्ट ने 1792 से 1797 तक पूरे 6 वर्ष तक विचार मन्थन के उपरान्त 'भारतीय शिक्षा' पर एक विलक्षण पुस्तक में लिखा-

"शिक्षा के प्रचार के लिए हम जो भी प्रयत्न करेंगे वह हमारे  मुख्य उद्देश्य को  प्राप्त करने में सहायक होगा. हमारा व्यापार 
उन्नति करेगा जो  योरोप के लिए अति आवश्यक है.  हमें चाहिए कि भारतीयों की रूचि भोग  विलास की सुन्दर वस्तुओं की ओर बढ़ायें.  जब उन्हें इसका चस्का लग जायेगा तो वे अपने विषय-भोग के लिए करोड़ों रुपये का माल हमसे खरीदेंगे. इससे हमारा दुःख-दारिद्र्य मिट जायेगा और हमारा व्यापार चिर-स्थायी हो जायेगा.फिर कोई भी हमारा मुकाबला न कर सकेगा."

सुप्रसिद्ध क्रन्तिकारी लाला हरदयाल ने चार्ल्स ग्रान्ट के इस कथन पर बड़ी ही गम्भीर टिप्पणी की थी-

"इतिहास हमें बतलाता है कि सब विजयी जातियाँ राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के पश्चात पराजित जातियों के आचार-विचार को अपने वश में कर लेती हैं. नैतिक विजय एक निर्बल जाति के शारीरिक बल को ही अपने वश में कर पाती है परन्तु सामाजिक तथा मानसिक दासता पराजित जाति के लिए विष का काम करती है. फिर उस जाति के लिए दासता से निकल कर स्वतन्त्र हो पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है."

देखा जाये तो आज से एक शताब्दी पूर्व जो भविष्य वाणी लाला हरदयाल जी ने की थी वह आज स्वतन्त्र भारत में अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रही है. क्या हमारी वर्तमान सरकार का यह दायित्व नहीं बनता कि वह अंग्रेजी शिक्षा पर पुनर्विचार करे. स्वतन्त्र भारत में कानून व्यवस्था की पहली पुस्तक अर्थात भारत के संविधान का निर्माण अंग्रेजी भाषा में क्यों किया गया जबकि संविधान निर्मात्री संस्था के लगभग सभी सदस्य (कुछेक को छोड़कर)  हिन्दी अच्छी तरह जानते थे
थे. विचार किया जाये तो भारतीय संविधान का निर्माण एक छलावा था  जो असंख्य बलिदानियों के रक्त के मूल्य के साथ किया गया. वस्तुतः भारतीय संविधान इंग्लैंड, अमरीका,कनाडा,आयरलैंड और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के संविधानों की मुख्य-मुख्य बातों का एक संकलन मात्र था जिसे हमारे तत्कालीन संविधान निर्माताओं ने अपनी  सुविधा अनुसार अपना लिया था. आज भी हमारे देश में 34735 कानून  अंग्रेजी राज्य के  यथावत (ज्यों के त्यों) चले आ रहे हैं. यही कारण है कि भारत की  आम जनता को समय पर  न्याय नहीं मिल पाता. आज भी करोड़ों मुकदमें भारतीय न्यायालयों में लम्बित (लटके पड़े) हैं जिन्हें निबटाने में 400 साल लगेंगे.

शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा ये तीनों ही व्यवस्थायें सरकार की ओर से आम जनता के लिए बिलकुल मुफ्त होनी चाहिए परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि सुरक्षा केवल राजनीतिक नेताओं की मुफ्त है बाकी बड़े लोग अपने सुरक्षा गार्ड खुद रखने लगे हैं. रह गयी शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था, वह पूरी तरह से व्यावसायिक नहीं, घोर व्यावसायिक हो गयी है. जिस व्यवस्था के तहत ये सब हो रहा है क्या उसे पूरी तरह से बदलने की आवश्यकता नहीं है? यह प्रश्न मैं आप सबको हल करने के लिए छोड़ता हूँ.

   

Friday, November 25, 2011

Duel eyewatch

दुधारी नीति की शिकार जनता  

इस कदर हम पर दुधारी नीति के पहरे हुए हैं,
मूक नगरी है यहाँ के लोग सब बहरे हुए हैं.

आज घायल साधना को बाँटते हैं स्वर कसैले,
भाव मन के गाँव में महमान से ठहरे हुए हैं.

लोग पीते जा रहे हैं वेदना का विष निरन्तर,
पीर के आयाम गीली आँख में गहरे हुए हैं.

बिछ गयी इस छोर से उस छोर तक मनहूस चौपड़,
शातिरों के हाथ हम शतरंज के मोहरे हुए हैं.

धूप  में तपना सरल पर छाँव में जलना कठिन है,
'क्रान्त' इस अनुभूति में झुलसे सभी चेहरे हुए हैं.

Tuesday, November 15, 2011

What is our contribution?

भ्रष्टाचार और हम

चर्चा है अत्यधिक भ्रष्ट हर सरकारी अधिकारी है,
जिसने  इसको जन्म दिया उसकी भी जिम्मेदारी है.
किसने उसको भ्रष्ट बनाने में कितना सहयोग किया,
कभी न ये हमने सोचा है यह कैसी लाचारी है?

जो समाज काफी बिगड़ा है आओ उसे बनायें कुछ,
हम औरों को छोड़ स्वयं निज जीवन में अपनायें कुछ,
जितने यहाँ बुद्धिजीवी हैं उनसे यही निवेदन है,
व्यक्ति-व्यक्ति निर्माण-भाव सारे समाज में लायें कुछ.

जिस समाज से जुड़े रहे हम कहो उसे क्या दे पाये,
अर्थ-स्वार्थ-चिन्तन में उसको इस स्थिति तक ले आये,
इस पर स्वयं विचार करें फिर जीवन में संकल्प करें,
वही करें जो धर्म-ध्वजा को कर्म-शिखा तक पहुँचाये.

हम फ्रेमों में तस्वीरों-से अपने को ही जड़े रहे,
बन्द किबाड़ें करके घर में अजगर जैसे पड़े रहे,
इसी मानसिकता के चलते बात नहीं कुछ बन पायी,
केवल बात बढ़ाने में ही अपनी जिद पर अड़े रहे.

जुड़ा धर्म के साथ कर्म है इस पर नहीं विचार किया,
प्रत्युत हमने कर्म छोडकर  केवल पापाचार किया,
यदि एकात्म-मनुज का चिन्तन हम समाज को दे पाते,
यहीं स्वर्ग होता धरती पर सबने यह स्वीकार किया.

लेकिन यह स्वीकार मात्र करने से काम नहीं होगा,
अपना सिर्फ प्रचार मात्र करने से काम नहीं होगा,
इस समाज में परिवर्तन अब नई पौध ही लायेगी,
कर्म-क्रान्ति हो गयी शुरू तो फिर आराम नहीं होगा.

जन-जन को दायित्व-वोध हम सबको करवाना होगा,
नीति-युक्त कर्तव्य-भाव अपने मन में लाना होगा,
एक और यदि जीवन है तो अपर ओर है मृत्यु खड़ी,
इन दोनों के बीच सही निर्णय को अपनाना होगा.

एक राष्ट्र का एक भाव हो संकल्पों की जिज्ञासा,
एक राष्ट्र का एक धर्म हो संकल्पों की अभिलाषा,
एक राष्ट्र का एक घोष "जय-हिन्द", घोषणा "जय-हिन्दी"
इन सबके अतिरिक्त राष्ट्र की और न कोई परिभाषा.

आओ फिर हुंकार करें कविवर दिनकर की वाणी में,
आओ फिर कोहराम मचा दें अखिल विश्व-ब्रह्माणी में,
एक बार सम्पूर्ण राष्ट्र उद्घोष कर उठे-"जय-हिन्दी"
स्वाभिमान का स्वर गूँजे भारतवासी हर प्राणी में. 

Tuesday, October 25, 2011

What a festival of Light?

यह कैसी दीवाली है?

अँधेरों की भुजाओं ने पकड़ रक्खी भुजाली है,
समझ में यह नहीं आता कि यह कैसी दीवाली है?

पड़ेगा किस तरह बोलो हमारे सोच में अन्तर,
कि पढ़-लिखकर भी जब अबतक हमारा बोल गाली है.

तिरंगा सोच में डूबा, उसे यह सोच ले डूबा;
गगन में किस तरह फहरे  कि जब कश्मीर खाली है.

हमें जब ख्बाव होता है, तभी पंजाब रोता है;
असम ने आँसुओं की धार आँखों में छुपा ली है.

वतन खुशहाल है अपना, ये मन टकसाल है अपना;
जरूरत के मुताबिक कर्ज की चादर बढ़ा ली है.

उन्हें है धर्म से नफरत, हमारी धर्म में शिरकत;
यही तो आंकड़ा ३६ का दोनों में सवाली है.

बयालिस* की मशालें जिसने पच्चिस** में जलायीं थीं,
भुला उसको अहिंसा ने शराफत बेच डाली है.

दशानन की तरह मूरख नहीं जो टालते जायें,
अभी से स्विस स्थित स्वर्ग तक सीढ़ी बना ली है.

हमें मौका मिला है हम भी दीवाली मनायेंगे,
दिवाला देश का निकले हमारे घर दिवाली है.

*भारत छोड़ो आन्दोलन(१९४२) **काकोरी-काण्ड(१९२५)

Monday, October 24, 2011

Swami Ram Tirth

दीपावली पर विशेष
स्वामी रामतीर्थ
Swami Ram Tirth was born on the day of Deepawali (1873), he left the family for ever to become a Monk on the day of Deepawali (1899) and he took Jal Samadhi to leave the world for ever also on the day of Deepawali (1906). What a wonderful co-incidence of his life!

Indian Revolutionary Pandit Ram Prasad Bismil had depicted the character of Swami Ram Tirth in a beatiful poem titled युवा सन्यासी (Yuva Sanyasi). This poem was first time published in his book मन की लहर( Man Ki Lahar). Some of the heart touching lines of this poem are reproduced hereunder:

"वृद्ध पिता-माता की ममता, बिन ब्याही कन्या का भार;
शिक्षाहीन सुतोंकी ममता, पतिव्रता पत्नी का प्यार.

सन्मित्रों की प्रीति और, कालेज वालों का निर्मल प्रेम;
त्याग सभी अनुराग किया, उसने विराग में योगक्षेम.

प्राणनाथ बालक-सुत-दुहिता, यूँ कहती प्यारी छोड़ी;
हाय! वत्स वृद्धा के धन, यूँ रोती महतारी छोड़ी.

चिर-सहचरी रियाजी छोड़ी, रम्यतटी रावी छोड़ी.
शिखा-सूत्र के साथ हाय! उन बोली पंजाबी छोड़ी."

#युवा-सन्यासी (मन की लहर से)

Dear Friends! I have translated these beautiful lines of Bismil in English.

"Left old parents and, unmarried daughter left alone;
 Left sons uneducated, and spouce left alone.

 Left lovable alma-mater, and left family away;
 Left all sobbing behind him, and went so far away.

 Left charming better-half and left river pious Ravi;
 Left curled beautyful hair, and language Punjabi."

#Young Monk (English Version of the above poem)

Those who want to know something more on Swami Ram Tirth they click the follwing link:
http://en.wikipedia.org/wiki/Swami_Rama_Tirtha

Saturday, October 22, 2011

Ashfaq Ulla Khan (111th Birth Day)





१११ वें जन्म दिन पर विशेष
शहीदे-वतन अशफाकउल्ला खाँ
उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर  में २२ अक्तूबर १९०० को जन्मे अशफाकउल्ला खाँ के पिता मोहम्मद शफीकउल्ला खाँ  एक कद्दावर पठान  थे  और उनकी माँ  मजहूरुन्निशाँ बेगम बेहद खूबसूरत थीं। अशफाक ने खुद अपनी डायरी में लिखा था  कि जहाँ  उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट न हो  सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट के पदों पर  रह चुके थे। १८५७ के गदर में उनके ननिहाल वालों ने जब हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो शाहजहाँपुर की  जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था। वह कोठी आज भी पूरे शहर में ''जली कोठी'' के नाम से मशहूर है। गोया अशफाक ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा-हमेशा के लिये धो डाला।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला ६ अप्रैल १९२६ को आ  गया था। अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट  की अदालत में ७ दिसम्बर १९२६ को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफाक को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिये नियुक्त करें किन्तु अशफाक ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। इस पर एक दिन सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने जेल में जाकर अशफाक से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने के लिये सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफाक ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो उन्होंने एकान्त में जाकर अशफाक को समझाया-

''देखो अशफाक ! तुम भी मुस्लिम हो और  मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे लोग हिन्दू हैं। ये यहाँ हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी जाया करने की जिद पर तुले हुए हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।"

इतना सुनते ही अशफाक की त्योरियाँ चढ गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-
"खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है। और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा। आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा ३०२ (कत्ल) का एक केस और कायम हो जायेगा।"
इतना सुनते ही बेचारे कप्तान साहब (तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से चुपचाप खिसक लिये। बहरहाल १३ जुलाई १९२७ को पूरक मुकदमे (सप्लीमेण्ट्री केस) का फैसला सुना दिया गया - दफा १२० (बी) व १२१ (ए) के अन्तर्गत उम्र-कैद और ३९६ के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी का दण्ड।

गुरुवार, १५ दिसम्बर १९२७ की शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी से अशफाक उल्ला खाँ ने अपना आखिरी पैगाम हिन्दुस्तान के अवाम के नाम लिखकर उर्दू भाषा में भेजा था। उनका मकसद यह था कि मुस्लिम समुदाय के लोग इस पर खास तवज्जो  तक यह पूरा सन्देश दिया हुआ है उसी में से कुछ खास अंश अपने ब्लॉग के पाठकों हेतु यहाँ पर दे रहा हूँ।

"गवर्नमेण्ट के खुफिया एजेण्ट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगण्डा फैला रहे हैं। इन लोगों का मक़सद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है, बल्कि चलती गाडी़ में रोडा़ अटकाना है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता,जो मुझे अय्यामे-फरारी (भूमिगत रहने) में और उसके बाद मालूम हुआ। यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था जो काबुल में संगसार (पत्थरों से पीट कर ढेर) किया गया। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके पास हमारे करमफरमा (भाग्यविधाता) खानबहादुर तसद्दुक हुसैन साहब डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट सी०आई०डी० गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैगाम लेकर गये थे मगर बेदारमग़ज हुकूमते-काबुल (काबुल की होशियार सरकार) ने उसका इलाज जल्द कर दिया और कम्युनलिज्म की बीमारी को वहाँ  फैलने न दिया।"


इसके बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के फायदे, अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद (मेलमिलाप), गोरी अंग्रेजियत का भूत उतारने की बात करते हुए देश के सभी कम्युनिस्ट ग्रुप (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) से विदेशी मोह व देशी चीजों से नफरत का त्याग करने की नायाब नसीहत देते हुए चन्द अंग्रेजी पंक्तियों के साथ रुखसत होने की गुजारिश की:

"मेरे भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल (अधूरे) काम को, जो हमसे रह गया है, तुम पूरा करना। तुम्हारे लिये हमने यू०पी० (उत्तर प्रदेश) का मैदाने-अमल (कार्य-क्षेत्र) तैयार कर दिया। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मैं चन्द सुतूर (पंक्तियों) के बाद रुखसत (विदा) होता हूँ:
"To every man upon this earth, death cometh soon or late.
But how can man die better, than facing fearful odds.
For the ashes of his fathers, and temples of his gods."

बिस्मिल की तरह अशफाक भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जाये तो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में बिस्मिल अशफाक के मुरीद हो गये थे जब एक मीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगर मुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-

"बहे बहरे-फना में जल्द या रब! लाश 'बिस्मिल' की।
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की।।"

तो अशफाक ने ''आमीन" कहते हुए जबाव दिया-

"जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की।।"

एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये। संयोग से उस समय अशफाक 'जिगर' मुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-

"कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"

बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-
"क्यों राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया?"

 इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया-

 "नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर उन्होंने 'मिर्ज़ा गालिब' की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी ''इरशाद'' कहता।"

अशफाक को बिस्मिल की यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा-
"तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और  गालिब से भी परले दर्जे की है।"

उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने ये शेर कहा-

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजु- ए- कातिल में है?"

यह सुनते ही अशफाक उछल पडे और बिस्मिल को गले लगा के बोले-
"राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"

इसके बाद तो अशफाक और बिस्मिल में होड-सी लग गयी एक से एक उम्दा शेर कहने की। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाये तो दोनों में एक तरह की 'टेलीपैथी' काम करती थी तभी तो उनके जज्बातों में एकरूपता दिखायी देती है। मिसाल के तौर पर चन्द मिसरे हाजिर हैं उदाहरण के लिए बिस्मिल का यह शेर-

"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
 मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?"

अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पडता है-

"मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
 हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?
 वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,
 हमारा क्या है अगर हम रहे,रहे न रहे।।"

मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ

"तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसद से थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।"

अशफाक के इस शेर से कितनी अधिक मिलती हैं-

"वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ हाँ उसी उजडे गुलिश्ताँ की।"

इसी प्रकार वतन की बरवादी पर बिस्मिल की पीडा

"गुलो-नसरीनो सम्बुल की जगह अब खाक उडती है,
 उजाडा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा।"

से मिलता जुलता अशफाक का यह शेर किसी भी तरह अपनी कैफियत में कमतर नहीं-

"वो रंग अब कहाँ है नसरीनो-नसतरन में,
 उजडा हुआ पडा है क्या खाक है वतन में?"

बिस्मिल की एक बडी मशहूर गजल 'उम्मीदे-सुखन'  की ये पंक्तियाँ-

"कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा।
 रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।"

अशफाक को बहुत पसन्द थीं। उन्होंने इसी बहर में सिर्फ एक ही शेर कहा था जो उनकी अप्रकाशित डायरी में इस प्रकार मिलता है:

"बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।"

जिन्हें अशफाक और बिस्मिल की शायरी का विशेष या तुलनात्मक अध्ययन करना हो वे किसी भी पुस्तकालय में जाकर मेरी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास  का दूसरा भाग देख सकते हैं।

अशफाक के बारे में आप अंग्रेजी विकिपीडिया में लेख देख सकते हैं लिंक दे रहा हूँ:
http://en.wikipedia.org/wiki/Ashfaqulla_Khan

Monday, October 17, 2011

Diety of our era

हमारे युग के देवता

हमने जिनको देवता समझ श्रद्धा स्वरूप पूजा की है,
ऐसा क्यों हमने किया कभी इसका कारण सोचा भी है.

देवता उसे कहते हैं जिसने सदा दिया हो लिया न हो,
वह कभी हुआ हो इससे क्या, पर अब भी वह ऐसा ही है.

दुर्गा शिव औ' हनुमान आदि सब इसी कोटि में आते हैं,
इसलिए इन्हें देवता कहा इसलिए इन्हें पूजा भी है.

क्या किसी देवता से कम था उन अमर शहीदों का चरित्र,
खोकर अपना सर्वस्व जिन्होंने हमको स्वतन्त्रता दी है.

उन अमर शहीदों की स्मृति में बनबायें हम भी मन्दिर,
क्या कभी आपने या हमने इस मुद्दे पर चिन्ता की है.

यदि सच समझो तो ये शहीद ही आज हमारे नायक हैं,
बच्चों से कभी कहानी में क्या इसकी भी चर्चा की है?

ये भी पूजा के लायक हैं, हम भी कितने नालायक हैं,
इन दीवानों को भुला  सिर्फ नेताओं की सेवा की है.

सौगन्ध राम की खाते हैं हम मन्दिर वहीं बनायेंगे,
यह कहने वालों से पूछो क्या इस पर कुछ सोचा भी है?

या जो जनता के पैसे से मूर्तियाँ  भव्य लगवाती  है,
उससे भी पूछो -" क्या इनकी खातिर थोड़ा पैसा भी है?"  



Monday, October 3, 2011

Iron man Shastriji

1942 के आन्दोलन के असली सूत्रधार लालबहादुर शास्त्रीजी

"शत्रु-दलन के लिए काल बनकर आये थे,
पड़ी भँवर में नाव पाल बनकर आये थे;
कैसे तुम्हें सराहें कैसे नमन करें हम,
लालबहादुर यहाँ लाल बनकर आये थे."

आग्नेय कवि दामोदरस्वरूप 'विद्रोही' की इन पंक्तियों के साथ शास्त्रीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता हुआ यह एतिहासिक प्रकरण हिन्दी विकिपीडिया से साभार उद्धृत किया जा रहा है:

दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त, १९४२ को पूरे ११ दिन आन्दोलन चलाने के बाद शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये।

इस  तथ्य  का  उल्लेख  भारत  की  पूर्व  प्रधानमन्त्री  श्रीमती  इन्दिरा  गांधी  ने  धरती का लाल  पुस्तक  में  अपने  लेख  मेरे राजनीतिक गुरु: शास्त्रीजी में किया था।

९ अगस्त १९२५ को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ ) के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ९ अगस्त १९४२ का दिन चुना था। काश! गान्धी जी सन् १९२२ में चौरीचौरा काण्ड से घबड़ाकर अपना असहयोग आन्दोलन वापस न लेते तो इतने सारे देशभक्त फाँसी पर झूलकर अपना मूल्यवान जीवन क्यों होम करते ?

शास्त्रीजी बम्बई से चुपचाप खिसक लिए और इलाहाबाद जाकर आनंद भवन में जा ठहरे क्योंकि वहाँ पुलिस का परिंदा भी न पहुँच सकता था. उधर बम्बई में ९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को यरवदा पुणे के आगा खान पैलेस में सारी सुविधाओं के साथ, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबन्द रखने का नाटक ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से इनमें से किसी को कोई हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये १६३० घायल हुए, १८००० डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े दिल्ली की तत्कालीन  सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।

जिन पाठकों को अधिक जानकारी या इसकी पुष्टि चाहिए वे कृपया निम्न साईट क्लिक करें:

Wednesday, September 28, 2011

Rang De Basanti?

मेरा रँग दे बसन्ती चोला

लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे. केस चल रहा था इसी दौरान "बसन्त पंचमी" का त्यौहार आ गया. सबने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे. उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पंडितजी! कल के लिए कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे." अगले दिन कविता तैयार थी;

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

भगतसिंह जब लाहौर जेल में  बन्द थे तो उन्होंने इसमें ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:

इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम" बोला,
यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने लहू में अपने घोला.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

आज अमर शहीद भगतसिंह की १०४ वीं जयन्ती पर  उन्हीं के प्रिय गीत के साथ हम सब भारतवासियों की उस दिव्यात्मा को हार्दिक श्रद्धान्जलि!!! 

Friday, September 23, 2011

Need to understand Ram Prasad 'Bismil' now?

बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन [भाग-दो]
पूर्व प्रधानमन्त्री भारत सरकार श्रीयुत् अटलबिहारी वाजपेयी 19 दिसम्बर 1996 को दिल्ली में सरफरोशी की तमन्ना का विमोचन करते हुए। सबसे बायें ग्रन्थावली के लेखक  हैं।

भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु रामप्रसाद 'बिस्मिल' एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर ''हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ'' के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक-से-बढकर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन लोगों ने किया उनके नाम का सिक्का आज पूरे भारत में चलता है। उन्हीं का चित्र भी भारतीय पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। अमरीकी डॉलर के आगे भारतीय मुद्रा का क्या मूल्य है? क्या किसी बुद्धिजीवी ने कभी इस मुद्दे पर विचार किया? एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्ध लड़ा था। बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था-''अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास''। बिस्मिल  जन्म शताब्दी वर्ष : १९९६-१९९७ में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन किसी और ने नहीं, बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया और ४ खण्डों में प्रकाशित जिस ग्रन्थावली सरफरोशी की तमन्ना में यह पुस्तक संकलित की गयी थी उसको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो० राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) का आशीर्वाद भी प्राप्त था। इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु इसे भारतवर्ष का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास तक नहीं किया जबकि गान्धीजी द्वारा १९०९ में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक हिन्द स्वराज पर शोध व संगोष्ठियाँ करके सरकारी कोष का अपव्यय किया जा रहा है
देखा जाये तो आज बिस्मिल के सपनों का हिन्दुस्तान निर्माण करके इस देश के सोये हुए स्वाभिमान को जगाने की परम आवश्यकता है। कांग्रेस की सरकार हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात तो बहुत करती है परन्तु जनता में अशफाक और बिस्मिल की कभी कोई चर्चा या उदाहरण प्रस्तुत नहीं करती। भारतीय जनता पार्टी को भी स्वातन्त्र्य समर के सेनापति रामप्रसाद 'बिस्मिल' की याद नहीं आती, जिनकी आत्मकथा किसी रामचरितमानस से कम नहीं। देखा जाये तो सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी ढपली पर अपना राग अलापने में लगे हुए हैं ताकि किसी तरह से सत्ता का स्वाद चखने को नहीं,निर्लज्जतापूर्वक भोगने को मिलता रहे । १५ अगस्त १९४७ का सूर्य उगने से पूर्व रात के गहन अँधेरे में भारत को स्वाधीनता तो मिल गयी, स्वतन्त्रता नहीं। आज भी यहाँ की ७५ प्रतिशत जनता चौपट राजा की अन्धेर नगरी में भटकने के लिये विवश है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के स्थान-स्थान पर स्टेचू लगाकर वोट जुटाने का पुतला तो खडा कर दिया गया है परन्तु कोई यह समझने या समझाने की कोशिश नही करता कि भारत का संविधान विदेशियों की नकल करके क्यों बनाया गया? किसी भी पार्टी के प्रत्याशी को ''स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास'' नहीं पढाया जाता। चुनाव जीतने के लिये रेस के घोड़ों की तरह प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। आज तक हमारे देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, सभी सरकारी-गैरसरकारी काम-काज अँग्रेजी में होता है। देश में अँग्रेजी शिक्षा के नाम पर सभी स्कूलों ने लूट मचा रखी है और ऐसे स्कूलों से पढकर आये अधिकांश छात्र किसी छोटे-मोटे काल-सेण्टर में काम करते-करते या तो कोल्हू के बैल बनकर रह जाते हैं या फिर किसी धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहते हैं न घाट के। हजारों की संख्या में भारत आ चुकी विदेशी कम्पनियाँ अँग्रेजी पढे-लिखे नवयुवकों को आकर्षक वेतन का लालच देकर उनके खून पसीने से अपने देश की अर्थ-व्यवस्था मजबूत करने में लगी हुई हैं। एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हमें ३०० वर्ष से अधिक समय तक गुलाम बनाकर रक्खा अब तो ये कम्पनियाँ हजारों की संख्या में हैं, भगवान जाने इस देश का क्या होगा?
यह बात हमारे देश के कितने नवयुवक जानते हैं कि जब यहाँ सन् १६०० में टॉमस रो नाम का अँग्रेज व्यापार करने का प्रार्थना-पत्र लेकर आया था तब मुगल बादशाह जहाँगीर का शासन था और १९४२ में जब ''ट्रान्सफर ऑफ पावर एग्रीमेण्ट'' तैयार किया गया तब एलेन ओक्टेवियन ह्यूम नामक एक अंग्रेज़ द्वारा १८८५ में स्थापित कांग्रेस में केवल गान्धी जी की तानाशाही चल रही थी। उन्हीं के मानसपुत्र जवाहरलाल नेहरू ने ''लॉर्ड लुइस मौण्टवेटन'' के साथ उस ''सत्ता हस्तान्तरण समझौते'' पर हस्ताक्षर किये थे और ब्रिटिश सरकार को यह वचन देकर सत्ता प्राप्त की थी कि जैसे अंग्रेज़ यहाँ पर शासन चला रहे थे वैसे ही उनकी पार्टी कांग्रेस भी चलायेगी। संविधान में देश का नाम बदल कर इण्डिया दैट इज भारत कर दिया, गान्धी जी को राष्ट्रपिता घोषित करके उनका फोटो भारतीय मुद्रा पर छाप दिया, रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा सन् १९११ में जॉर्ज पंचम की स्तुति प्रशस्ति में लिखा व गाया गया गीत "भारत भाग्य विधाता" राष्ट्रगान घोषित कर दिया और कांग्रेस को ''करप्शन'' की खुली छूट दे दी। लोकतन्त्र के नाम पर सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को ''लूटतन्त्र'' बना दिया और शहादत के नाम पर केवल गान्धी (नेहरू) - परिवार की कुर्बानियों को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत किया। ऐसी परिस्थितियों में फिर से आम आदमी को रामप्रसाद 'बिस्मिल' की रचनाओं का वास्तविक ''क्रान्ति-दर्शन'' समझाने की आवश्यकता है।
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नोट: मेरे ब्लॉग के पाठक यदि अधिक जानकारी चाहते हों तो हिन्दी विकीपीडिया पर रामप्रसाद 'बिस्मिल' देखें, लिंक ये है: http://en.wikipedia.org/wiki/Ram_Prasad_Bismil

Wednesday, September 21, 2011

Cap's Caption

क्या मतलब?

नरेन्द्र मोदी ने एक इमाम की टोपी नहीं पहनी इस पर मीडिया में बबाल मचा हुआ है एक कता अर्ज है:

"आज जो लोग हमें टोपियाँ पिन्हायेंगे,
 कल वही लोग मेरी टोपियाँ उछालेंगे.
पहन लेने को सिर्फ एक कैप काफी है,
लोग इस बात के मतलब कई निकालेंगे."

Thursday, September 15, 2011

Subject Situation

सूरते-हाल

सूरते-हाल ऐसे हैं क्या कीजिये ?
अब तो इस मर्ज की कुछ दवा कीजिये ?

इससे पहले कि हो जाये तर्के-अहद,
आप ही अब कोई फैसला कीजिये.

जिनकी आँखों में गैरत का पानी नहीं,
उन निगाहों से कैसे बचा कीजिये ?

आदमी अपनी नीयत से मजबूर है,
उससे गिरगिट भी डरता है क्या कीजिये ?

इस ज़माने का ऐसा ही दस्तूर है,
अब ये दस्तूर बदले दुआ कीजिये ?

'क्रान्त' फिर से तमन्ना जबाँ हो सके,
ऐसा कुछ दर्द दिल से अता कीजिये ?
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तर्के-अहद = प्रतिज्ञा-भंग, अता=अभिव्यक्त

The Tragic Silence

तटस्थ शान्ति?

चुप्पियों के अर्थ गहरे हो गये हैं.
मौन के अक्षर सुनहरे हो गये हैं.

शोर से अनभिज्ञ हैं अब तक दीवारें,
खिड़कियों के कान बहरे हो गये हैं.

त्रासदी के बोझ से घायल दिशायें,
मार से बीमार दोहरे हो गये हैं.

चाल चलता जा रहा हर बार कोई,
हम महज इंसान मोहरे हो गये हैं.

रूढ़ियों की बेडियाँ जब से कटी हैं,
और दकियानूस पहरे हो गये है.

'क्रान्त' जबसे आँख का पानी मरा है,
शक्ल से मनहूस चेहरे हो गये हैं.

Wednesday, September 14, 2011

Linguistic Love of Bismil

बिस्मिल का हिन्दी-प्रेम

"न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना.
मुझे वर  दे यही  माता !  रहूँ  भारत  पे  दीवाना.

मुझे हो प्रेम हिन्दी से, पढूँ हिन्दी लिखूँ हिन्दी;
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहनना- ओढना- खाना.

रहे   मेरे   भवन  में  रौशनी ,   हिन्दी - चिरागों  की;
कि जिसकी लौ पे जलकर खाक हो 'बिस्मिल'-सा परवाना." 
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मन की लहर पुस्तक से साभार  

Sunday, September 11, 2011

Hail Hindi (14 Sept 2011)

हिन्दी-दुर्दशा

हिन्दी में छेड़ा गया, आज़ादी का युद्ध;
तिलक-गान्धी-बोस थे,कोई नहीं विरुद्ध.
कोई नहीं विरुद्ध , मराठी या गुजराती;
बंगाली ने स्नेह दिया, यह है वह बाती.
कहें'क्रान्त'होंतमिल-तेलगू,या हों सिन्धी;
सभी जनों ने केवल अपनाई थी हिन्दी.

उसका ही परिणाम है, देश हुआ आज़ाद;
हम भाषा के भेद को, भुला हुए आबाद.
भुला हुए आबाद,किन्तु जब अवसर आया;
संविधान बनने का तब क्यों उसे भुलाया.
कहें 'क्रान्त' है दोष बताओ,इसमें किसका;
जनता का तो नहीं, बना जो नेता उसका.

आज़ादी के बाद जब, अपना बना विधान;
हिन्दी भाषा को नहीं,मिला उचित स्थान.
मिला उचित स्थान, अड़ गये थे नेहरूजी; 
बोले -  "पन्द्रह  वर्ष  रहेगी   बस अंग्रेजी."
कहें 'क्रान्त' कर गये, एकता की बरबादी;
हिन्दी को कम  करने की , देकर आज़ादी. 

हिन्दी ने हमको दिया, आज़ादी का स्वाद;
कूटनीति ने कर दिया, हिन्दी को बरबाद.
हिन्दी को बरबाद, कुटिल केकई न मानी;
पन्द्रह वर्षों में  इंग्लिश, हो गयी सयानी.
कहें 'क्रान्त' बन गयी सुहागन,रचकर बिन्दी;
सौतन करती राज, हो गयी बाँदी हिन्दी.

Thursday, September 8, 2011

Blood Group-"P"

मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल पर

बिस्मिल जी की ये कता पढ़ें और प्रतिक्रिया दें:

"हकीर होके न हिन्दोस्ताँ में यूँ रहिये.
ये जोर जुल्म जलालत  जहाँ  में  क्यूँ सहिये.
रहे रगों में रबाँ वो लहू नहीं 'बिस्मिल',
बहे जो कौम की खातिर उसे लहू कहिये."

शहीदे-आज़म पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल'
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नोट: "जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है?"- (ग़ालिब). शब्दार्थ:  हकीर=इतना अधिक छोटा

Monday, September 5, 2011

Basic Education v/s Corruption

करप्शन की पैदाइश

(आज  भारत के दार्शनिक राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म-दिन है जिसे सम्पूर्ण देश में शिक्षक-दिवस के रूप में मनाया जाता है. उनको स्मरण करते हुए कुछ कवितायेँ कुण्डली छन्द में भ्रष्टाचार पर कुण्डली मार कर बैठे हुए इन अजगरों के कान खोलने के  लिये इस ब्लॉग पर दी जा रही हैं. पाठकों की प्रतिक्रिया ही तो हमारा सम्बल है अतः उसमें कंजूसी न करें, धन्यवाद!)


सन सैंतालिस में हुआ, जब ये देश आज़ाद;
विश्व बैंक से तब मिली, खरबों की सौगात.
खरबों की सौगात, बाढ़ पैसे की आयी;
चूक गयी सरकार, न कोई रोक लगायी.
कहें 'क्रान्त' जब हुई, करप्शन की पैदाइश;
कांग्रेस के कुल में, वह था सन सैंतालिस.

कैसे होता देश में, घर-घर यहाँ विकास;
जड़ में मट्ठा डालकर, किया तन्त्र का नाश.
किया तन्त्र का नाश, बढ़ी अंग्रेजी शिक्षा;
चौपट होती गयी, गाँव की बेसिक शिक्षा.
कहें 'क्रान्त' जो जैसा बीज खेत में बोता;
उसका वैसा बृक्ष,और वैसा फल होता.

बेसिक शिक्षा पर यहाँ, होता कितना खर्च;
इस पर जब हमने करी, वर्षों बड़ी रिसर्च;
वर्षों बड़ी रिसर्च, समझ में तब ये आया;
क्यों घनघोर अशिक्षा का यह संकट आया.
कहें 'क्रान्त' यदि विश्व बैंक से मिले न भिक्षा;
यह सरकार न दे पायेगी बेसिक शिक्षा.

जस राजा तैसी प्रजा, प्रजातन्त्र का अर्थ;
प्रजातन्त्र में जस प्रजा, वैसा तन्त्र समर्थ.
वैसा तन्त्र समर्थ, अर्थ समझो ऐसे ही;
प्रजा मूढ़ तो प्रतिनिधि भी होंगे वैसे ही.
कहें 'क्रान्त' बेसिक शिक्षा का मतलब ताजा;
प्रजा रहेगी वैसी ही, चाहे जस राजा.

बेसिक शिक्षा मायने, बुनियादी तालीम;
नहीं मिले तो मानिये, होगा मुल्क यतीम.
होगा मुल्क यतीम, समस्या तब; सुलझेगी;
जब शिक्षा की नींव यहाँ मजबूत बनेगी.
कहें 'क्रान्त' मत विश्व बैंक से माँगो भिक्षा;
अपने दम पर आप सुधारो बेसिक शिक्षा.


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Friday, September 2, 2011

Hard nut to crack

कबाब की हड्डी

"हालत बयान क्या करें अब उस शबाब की.
बीबी जबान जैसे हो बूढ़े नबाब की .
अन्ना को बुलाकर के अब पछता रहे हैं वो,
ये तो गले में बन गया हड्डी कबाब की."
डॉ. 'क्रान्त' एम.एल.वर्मा
http://krantmlverma.blogspot.com/ पर भ्रष्टाचार का भस्मासुर अवश्य पढ़ें

Sunday, August 28, 2011

The snake has gone to the Bill

काला पीला

कांग्रेस ने कर लिया, काम अपना चुपचाप.
लोकपाल बिल में घुसा, भ्रष्टाचार का साँप.

काला धन हो जायेगा ,  पीला अपने आप.
तीन माह बिल में छुपा, बिठा दिया है  साँप.

सोना अब हो जायेगा , यहाँ  पचास हजार.
धन तेरस का आ रहा, कातिक में त्यौहार.

स्विस बैंक में जो जमा, सारा लिया निकाल.
अन्ना को संग्राम में , इधर बनाकर ढाल.

डॉ.'क्रान्त' एम० एल० वर्मा 

Friday, August 26, 2011

A Tribute to Shaheed Arun Dass

श्रद्धासुमन शहीद अरुणदास को
         
 वतन पर मरने वाले क्या नहीं ईसार करते हैं
    जमीं के जर्रे -जर्रे से वो इतना प्यार करते हैं.
          कि मर जाने पे भी उनकी तडपती रूह कहती है-
               "रजज को बन्द कर दो ये हमें बेजार करते है."
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                                        शब्दार्थ: ईसार=त्याग, रजज=रणभेरी
           डॉ.'क्रान्त' एम० एल० वर्मा  

Congress Conceals Corruption


भ्रष्टाचार का भस्मासुर
डॉ० 'क्रान्त' एम० एल० वर्मा

आज़ादी के बाद देश में  भ्रष्टाचार  बढ़ा  है ।
लोकतन्त्र के साये में कुल का आकार बढ़ा है॥

भारत भ्रष्टाचार राशि दोनों की एक रही है ।
काँग्रेस के साथ करप्शन का भी हाल यही है॥

पहले केवल हरे नोट पर गान्धीजी आये थे।
उसके  माने  काँग्रेस ने ही यह बतलाये थे॥

चपरासी बाबू अफसर जब दफ्तर में तन जाये।
हरा नोट दिखला दो बिगड़ा हुआ काम बन जाये॥

आम आदमी को पहले इसकी आदत डलवायी ।  
उस के बाद करप्शन की सरकारी लिमिट  बढ़ायी ॥

दस के बाद पचास बाद में सौ पर  बापू आये ।
उसके बाद करप्शन ने अपने जौहर दिखलाये ॥

काँग्रेस ही सूटकेस की धाँसू  कल्चर  लायी ।
बापू की तस्वीर पाँच सौ के नोटों पर आयी॥

दो गड्डी में पेटी भर का काम निकल जाता है।
लेन देन का धन्धा भी सुविधा से चल जाता है॥

अब  तो चिदम्बरम साहब  चश्में को पोंछ रहे हैं।
भ्रष्टाचार  घटाने  की  तरकीबें  सोच  रहे  हैं ॥

बड़े-बड़ों के घर आये  दिन छापे  डाल रहे हैं ।
गान्धी बाबा गड़े हुए हैं उन्हें निकाल रहे हैं ॥

पहले सारा गड़ा हुआ   धन  ये बाहर ले आये  ।
फिर  हजार के नोटों पर गान्धीजी  को छपबाये ॥

पेटी अब पैकेट बनकर पाकेट में आ जाती है।
सोन चिरैया भारत में अब नजर नहीं आती है॥

लालू एक हजार कोटि की सीमा लाँघ चुके हैं।
नरसिम्हा चन्द्रास्वामी सब इसे डकार चुके हैं॥

माया के चक्कर में बी.जे.पी. ने साख गँवाई।
छ: महिने में माया ने अपनी माया दिखलाई॥

गली- गली नुक्कड़-नुक्कड़ चौराहे-दर-चौराहे।
बाबा साहब  भीमराव के  स्टेचू  गड़वाए ॥

नोटों पर गान्धी बाबा ने अपना रंग दिखाया ।
चौराहे पर    बाबा साहब ने  वोटर  भरमाया ॥

स्विस-लाण्ड्री से जिनके कपड़े धुलकर आते  थे।
और मौज मस्ती को जो स्वित्ज़रलैंड जाते  थे॥

काँग्रेस ने उनसे इन्ट्रोडक्शन करा लिया है।
नाती-पोतों के खातों का मजमा लगा दिया है॥

रानी की शह पाकर ए.राजा ने हद कर डाली।
कलमाड़ी के कीर्तिमान की कली-कली चुनवा ली॥

मनमोहन बन भीष्म बैठकर नाटक देख रहे हैँ।
चीर- हरण हो रहा और वे आँखें सेंक रहे हैँ ॥

अब तक ६३  सालों में जो कुछ हमने पाया है।
वह सब विश्व बैंक के चैनल से होकर आया है॥

काँग्रेस   का    बीज    यहाँ   अँग्रेजों    ने    बोया   था ।
जिसके  कारण भारत का जो स्वाभिमान खोया था॥

उसको कर्म-क्रान्ति के द्वारा  फिर वापस लाना है।
'क्रान्त'  का ये  सन्देश  आपको  घर-  घर पहुँचाना है ॥

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Monday, August 22, 2011

Hunger strike in the jail by Kakori Prisoners

Hunger strike in the jail
As per Kakori Conspiracy Case file the Judgement was given on 6th of April 1927 at Lucknow.After the final judgement of court the Group Photograph of condemned prisoners alongwith other accused was taken and all the accused were sent to the different jails of United Province. They were asked to put off their cloths and wear the jail dress like other prisoners. All the accused revolutionaries protested this jail order and started hunger strike on the first day. Their plea was quite genuine. They argued that since the all have been charged to overturn the British Rule and have been punished under section 120(B) & 121(A) hence they should be treated as Political Prisoners and provided the same facilities in the Jails.
The details of their hunger stike are given hereunder
Name of the Prisoner
Name of the Jail
Days
Ram Prasad BismilGorakhpur Central Jail
5
Roshan SinghAllahabad Jail
6
Ram Nath PandeyRaibareli District Jail
11 
Prem Krishna KhannaDehradun District Jail
16
Suresh Chandra BhattacharyaAgra Central Jail
19 
Ram Krishna KhatriAgra Central Jail
32 
Mukundi LalBareilly District Jail
32 
Raj Kumar SinhaBareilly District Jail
38 
Jogesh Chandra ChatterjeeFatehgarh Jail
41
Ram Dulare TrivediFatehgarh Jail
41
Govind Charan KarFatehgarh Jail
41
Manmath Nath GuptaNaini Allahabad Jail
45 
Vishnu Sharan DublishNaini Allahabad Jail
45
Those who want to see more informations they may see English Wikipedia by clicking the following link:

ऊपर दिये गये चित्र में क्रान्तिकारियों के नाम इस प्रकार हैं:


१.योगेशचन्द्र चटर्जी, २.प्रेमकृष्ण खन्ना, ३.मुकुन्दीलाल,४.विष्णुशरण दुबलिश, ५.सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य,६.रामकृष्ण खत्री,७.मन्मथनाथ गुप्त, ८.राजकुमार सिन्हा,९.ठाकुर रोशनसिंह,१०.पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल',११.राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, १२.गोविन्दचरण कर,१३.रामदुलारे त्रिवेदी,  १४.रामनाथ पाण्डेय,१५.शचीन्द्रनाथ सान्याल,१६.भूपेंद्रनाथ सान्याल,१७.प्रणवेशकुमार चटर्जी.