Thursday, July 28, 2011

Shankar Dayal Singh


आलेख : डॉ. मदन लाल वर्मा 'क्रान्त'
शंकर दयाल सिंह 
शंकर दयाल सिंह (१९३७-१९९५) भारत के राजनेता तथा हिन्दी साहित्यकार थे। वे राजनीति व साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनकी असाधारण हिन्दी सेवा के लिये उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा। उनके सदाबहार बहुआयामी व्यक्तित्व में ऊर्जा और आनन्द का अजस्र स्रोत छिपा हुआ था। उनका अधिकांश जीवन यात्राओं में ही बीता और यह भी एक विचित्र संयोग ही है कि उनकी मृत्यु भी यात्रा के दौरान उस समय हुई जब वे संसद के शीतकालीन अधिवेशन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने पटना से दिल्ली आ रहे थे। नई-दिल्ली रेलवे स्टेशन पर २७ नवम्बर १९९५  की सुबह ट्रेन से कहकहे लगाते हुए शंकर दयाल सिंह नहीं उतरे, वोझिल मन से उनके परिजनों ने उनके शव को उतारा।

 

जन्म और जीवन

बिहार के औरंगाबाद जिले के भवानीपुर देव गाँव में २७ दिसम्बर १९३७ को प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार व बिहार परिषद के सदस्य स्व० कामताप्रसाद सिंह के यहाँ जन्मे बालक के माता-पिता ने अपने आराध्य देव शंकर की दया का प्रसाद समझ कर उसका नाम शंकर दयाल रखा जो जाति सूचक शब्द के संयोग से शंकर दयाल सिंह हो गया। छोटी उम्र में ही माता का साया सिर से उठ गया अत: दादी ने उनका पालन पोषण किया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक (बी०ए०) तथा पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (एम०ए०) की उपाधि (डिग्री) लेने के पश्चात १९६६ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और १९७१ में सांसद चुने गये। एक पाँव राजनीति के दलदल में सनता रहा तो दूसरा साहित्य के कमल की पांखुरियों को कुरेद-कुरेद कर जन - जन में  उसका सौरभ लुटाता रहा। श्रीमती कानन बाला जैसी सुशीला प्राध्यापिका पत्नी, दो पुत्र - रंजन व राजेश तथा एक पुत्री - रश्मि; और क्या चाहिये सब कुछ तो उन्हें अपने जीते जी मिल गया था तिस पर मृत्यु भी मिली तो इतनी नीरव इतनी शान्त कि शरीर को एक पल का भी कष्ट नहीं होने दिया।

विविध  कार्य

समाचार भारती के निदेशक पद से प्रारम्भ हुई शंकर दयाल सिंह की जीवन-यात्रा संसदीय राजभाषा समिति, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी, भारतीय रेल परामर्श समिति, भारतीय अनुवाद परिषद, केन्द्रीय हिन्दी सलाहकार समिति जैसे अनेक पडावों को पार करती हुई देश-विदेश की यात्राओं का भी आनन्द लेती रही और अपने सहयात्रियों के साथ उन्मुक्त ठहाके लगाकर उनका रक्तवर्धन भी करती रही। और अन्त में उनकी यह यात्रा रेलवे के वातानुकूलित शयनयान में गहरी नींद सोते हुए २७ नवम्बर १९९५ को उस समय समाप्त हो गयी जब उनके जन्म दिन की षष्टिपूर्ति में मात्र एक मास शेष रह गया था। यदि २७ दिसम्बर १९९५ के बाद भी उनकी यात्रा जारी रहती तो अपना ६०वाँ जन्म-दिन उन्हीं ठहाकों के बीच मनाते जिसके लिये वे अपने मित्रों के बीच जाने जाते थे। उनकी एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने जीवन पर्यन्त भारतीय जीवन मूल्यों की रक्षा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का पोषण किया भले ही इसके लिये उन्हें कई बार उलझना भी पडा किन्तु अपने विशिष्ट व्यवहार के कारण वे उन तमाम वाधाओं पर एक अपराजेय योद्धा की तरह विजय पाते रहे।

राजनीति की धूप

शंकर दयाल सिंह लोकसभाराज्यसभा दोनों के सदस्य रहे किन्तु चूँकि मूलत: वे एक साहित्यकार थे अत: राजनीति में होने वाले दाव पेंच उन्हें रास नहीं आते थे और वे उसकी तेज धूप से बचने के लिये बहुधा साहित्य का छाता तान लिया करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने लेखों में उन सबकी बखिया उधेड कर रख देते थे जो उनके शुद्ध अन्त:करण को नीति विरुद्ध लगते थे। जैसे सरकार की ग्रामोत्थान के प्रति तटस्थता का भाव उन्हें सालता था तो वह संसद की चर्चाओं में तो अपनी बात रखते ही थे विविध पत्र-पत्रिकाओं में लेख भी लिखते थे जिन्हें पढकर विरोधी-पक्ष खुश और सत्ता-पक्ष (कांग्रेस), जिसके वे स्वयं सांसद हुआ करते थे, नाखुश रहता था। देखा जाये तो राजनीति में, आज जहाँ प्रत्येक पार्टी ने केवल चाटुकारों की चण्डाल-चौकडी का मजमा जमा कर रक्खा है जिसके कारण राजनीति के तालाब में स्वच्छ जल की जगह कीचड ही कीचड नजर आ रही है; वहाँ के प्रदूषित वातावरण में शंकरदयाल सिंह सरीखे कमल की कमी वास्तव में खलती है। उन्होंने लगभग २५ लेख राजनीतिक उठापटक को लेकर ही लिखे जो तत्कालीन समाचारों की सुर्खियाँ तो बने ही, पुस्तकाकार रूप में पुस्तकालयों में उपलब्ध भी हैं।

साहित्य की छाँव

जीवन को धूप-छाँव का खेल मानने वाले शंकर दयाल सिंह का यह मानना एक दम सही था कि जिस प्रकार प्रकृति अपना संतुलन अपने आप कर लेती है उसी प्रकार राजनीति में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को साहित्यकार होना पहली योग्यता का मापदण्ड होना चाहिये। वे अपने से पूर्ववर्ती सभी दिग्गज राजनीतिक व्यक्तियों का उदाहरण प्राय: दिया करते थे और बताते थे कि वे सभी दिग्गज लोग साहित्यकार पहले थे बाद में राजनीतिकार या कुछ भी; जिसके कारण उनके जीवन में निरन्तर सन्तुलन बना रहा और वे देश के साथ कभी धोखा नहीं कर पाये। आज जिसे देखो वही राजनीति को व्यवसाय की तरह समझता है सेवा की तरह नहीं; यही कारण है कि सर्वत्र अशान्ति का साम्राज्य है। हालात यह हैं कि आजकल राजनीति की धूप में नेताओं के पाँव कम, जनता के अधिक झुलस रहे हैं। उन्हीं के शब्दों में - "मैंने स्वयं राजनीति से आसव ग्रहण कर उसकी मस्ती साहित्य में बिखेरी है। अनुभव वहाँ से लिये, अनुभूति यहाँ से। मरण वहाँ से वरण किया जीवन यहाँ से। वहाँ की धूप में जब-जब झुलसा,छाँव के लिये इस ओर भागा। लेकिन यह सही है कि धूप्-छाँव का आनन्द लेता रहा, आँख-मिचौनी खेलता रहा।" (उद्धरण:-राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव शंकर दयाल सिंह पृष्ठ ११७ से)

भाषा की भँवर में

भारतवर्ष को स्वतन्त्रता के पश्चात यदि कोई एक नीति एकजुट रख सकती थी तो वह केवल एक भाषागत राष्ट्रीय-नीति ही रख सकती थी किन्तु हमारे देश के कर्णधारों ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया अपितु एक के बजाय अनेक भाषाओं के भँवर-जाल में उलझाकर डूब मरने के लिये विवश कर दिया है। जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अथवा हमारी आजादी का युद्ध एक भाषा हिन्दी के माध्यम से लडा गया, उसमें किसी भी प्रान्त-भाषा-भाषी ने यह अडंगा नहीं लगाया कि पहले उनकी भाषा सीखो तभी वे एकजुट होकर तुम्हारा साथ देंगे अन्यथा नहीं देंगे। इस तरह यदि करते तो क्या कभी १९४७ में हिन्दुस्तान आजाद हो सकता था? कदापि नहीं। राष्ट्र-भाषा तो एक ही हो सकती है अनेक तो नहीं हो सकतीं। यदि राष्ट्र-भाषायें एक के स्थान पर १५ या २० कर दी जायेंगी तो निश्चित मानिये प्रान्तीयता का भाव प्रत्येक के मन में पैदा होगा और उसका दुष्परिणाम यह होगा कि यह राष्ट्र विखण्डन की ओर अग्रसर होगा, एकता की ओर नहीं।

यायावरी के अनुभव

शंकर दयाल सिंह चूँकि सांसद भी रहे और संसदीय कार्य-समितियों में उनकी पैठ भी बराबर बनी रही अतएव उन्हें सरकारी संसाधनों के सहारे विभिन्न देशों व स्थानों की यात्रायें करने का सुख भी उपलब्ध हुआ। परन्तु उन्होंने वह सुख अकेले न उठाकर अपने साहित्यिक मित्रों को भी उपलब्ध कराया तथा लेखों के माध्यम से अपने पाठकों को भी पहुँचाया। सोवियत संघ की राजधानी मास्को से लेकर सूरीनाम और त्रिनिदाद तक की महत्वपूर्ण यात्राओं के वृतान्त पढकर हमें यह लगता ही नहीं कि शंकर दयाल सिंह हमारे बीच नहीं हैं। अपितु कभी-कभी तो ऐसा आभास-सा होता है जैसे वह हमारे इर्द-गिर्द घूमते हुए लट्टू की भाँति गतिमान इस भूमण्डल के चक्कर अभी भी लगा रहे हैं। पारिजात प्रकाशन, पटना से प्रथम बार सन् १९९२ में प्रकाशित पुस्तक राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव में पृष्ठ ३०१ से ३३१ तक लेखों के माध्यम से दिये उनकी यायावरी (घुमक्कडी वृत्ति) के अनुभव बडे ही रोचक हैं।

रचना संसार

सन १९७७ से 'सोशलिस्ट भारत' में उनके लेख प्रकशित होने प्रारम्भ हुए जो सन १९९२ तक अनवरत रूप से छपते ही रहे ऐसा उल्लेख उनकी बहुचर्चित पुस्तक राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव  में पृष्ठ ३४४-३४५ पर मिलता है। इसी के आगे दी गयी शंकरदयाल सिंह की प्रकाशित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:
  1. राजनीति की धूप:साहित्य की छाँव
  2. इमर्जेन्सी:क्या सच,क्या झूठ
  3. परिवेश का सुख
  4. मैने इन्हें जाना
  5. यदा-कदा
  6. भीगी धरती की सोंधी गन्ध
  7. अपने आपसे कुछ बातें
  8. आइये कुछ दूर हम साथ चलें
  9. कहीं सुबह:कहीं छाँव
  10. जनतन्त्र के कठघरे में
  11. जो साथ छोड गये
  12. भाषा और साहित्य
  13. मेरी प्रिय कहानियाँ
  14. एक दिन अपना भी
  15. कुछ बातें:कुछ लोग
  16. कितना क्या अनकहा
  17. पह्ली बारिस की छिटकती बूँदें
  18. बात जो बोलेगी
  19. मुरझाये फूल:पंखहीन
  20. समय-सन्दर्भ और गान्धी
  21. समय-असमय
  22. यादों की पगडण्डियाँ
  23. कुछ ख्यालों में:कुछ ख्वाबों में
  24. पास-पडोस की कहानियाँ
  25. भारत छोडो आन्दोलन

सम्मान व पुरस्कार

राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिये शंकर दयाल सिंह ने आजीवन आग्रह भी किया, युद्ध भी लडा और यदा-कदा आहत भी हुए। इस सबके बावजूद उन्हें सन् १९९३ में अनन्तगोपाल शेवडे हिन्दी सम्मान तथा सन् १९९५ में गाड्गिल राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया परन्तु इससे वे पूर्णत: मानसिक रूप से सन्तुष्ट नहीं कभी नहीं हुए। निस्सन्देह शंकर दयाल सिंह पुरस्कार या सम्मान पाकर अपनी बोलती बन्द कर देने वालों की श्रेणी के व्यक्ति नहीं, अपितु और अधिक प्रखरता से मुखर होने वालों की श्रेणी के व्यक्ति थे। यही कारण था कि प्रतिष्ठित लेखक के रूप में केन्द्र सरकार ने भले ही कोई पुरस्कार या सम्मान न दिया हो, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे; परन्तु देश भर से कई संस्थाओं, संगठनों व राज्य-सरकारों से उन्हें अनेकों पुरस्कार प्राप्त हुए।

 सन्दर्भ एवम् आभार

  1. राजनीति की धूप : साहित्य की छाँव शंकर दयाल सिंह १९९२ पारिजात प्रकाशन पटना-१
  2. मेरे ये आदरणीय और आत्मीय आशा रानी व्होरा २००२ नमन प्रकाशन नई दिल्ली-२ ISBN : 8187368071
( डॉ० मदन लाल वर्मा 'क्रान्त' का यह आलेख हिन्दी विकीपीडिया से साभार उद्धृत है  ).  http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B9 ( पुष्ठि के लिये साईट देखें )

Friday, July 22, 2011

tulsi eulogy

तुलसी स्तवन

तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पाँति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झुलसी.
झुलसी धरा के त्रण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा -सी हुलसी.
हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी.
कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी.

आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुंज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी.
जन्मते ही राम -नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी.
रत्नावली-सी अर्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ़ प्रीति पाय गये तुलसी.
मानस में राम के चरित्र की कथा को गाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी.

Tulsi Eulogy
(Lyrical Translation)

Tulsi wrote Manas when cast creed communal heat had hit on earth the humanity.
It was breez of first rain that was blown from Manas to save the community.
Each of us got such a beautyful thought in the form of Ram and his entity.
That whole world became fan of Ram and Ram brought in the world an unity.

It was soul of Ram in Atmaram that took birth in the form of Tulsi.
Since he spoke name of Ram at birth hence was named as Rambola Tulsi. 
From Ratnavali he got the attachment with Ram and he became saint Tulsi.
Wrote an epic the Manas to read which world knew the Ram such a great was Tulsi.

Wednesday, July 20, 2011

The Alternative

The Alternative
(English Version of Vikalp)

That day the trend of country will change,
When its youth will accept the challange.

No one can do any thing in life,
Until & unless he does'nt resolve.
A resolve can not emerge in mind,
Until it is sound enough to evolve.

How will the body be sound enough,
Body of whose is lean an thin.
How will survive culture there,
Where the one third race is din.

This is the land where Shiva was born,
And Pratap loitered in forest throughout.
Patriot-Poet of Pen and Pistol,
Bismil was enough to kick them out.

The British Empire was shaken from within,
By Kakori Conspiracy Case so badly.
He sacrificed himself but to masses he gave,
The message that brought here dawn so early.

The lion-hearted Azad who put to task,
The highest rank and file of forces.
Bhagat Singh's body was whipped to blood,
Yet his conscience never became a witness.

Of which clay were really made they,
Who did not bow but given away.
Their lives for sake of country's health,
And we are running after women & wealth!

Today's youth is blindly running,
Aftere every sort of luxurious life.
Forgetting his golden culture he takes,
The western brass in the arms as wife.

What's going on in the country today,
He does'nt think but minds his business.
Any one may do whatsoever he may,
He won't bother but keeps his mistress.

His only job is to cut accross shelter,
Whether it be right or wrong, no maatter.
He can call even ass - "O Father!"
Anyhow be all the way his favour.

Not even a single Leader in such a big Nation,
Everyone is keeping up his Image better.
Seldom are Poets who speak up the Truth,
Otherwise most are Joker or Singer.

If every youth wants our country be greater,
Then each one of us will have to correct,
Himself. otherwise in future, no doubt,
We will lose again like past, it's a fact.

Monday, July 18, 2011

विकल्प

मैं, एस०के०गुप्त, प्रो० वी०के० मल्होत्रा एवं श्री अटलबिहारी वाजपेयी


नक्शा उस दिन सम्पूर्ण देश का बदलेगा जब युवा वर्ग ये चुनौतियाँ स्वीकारेगा

खाली बैठे-बैठे न व्यक्ति कुछ कर पाता जब तक उसमें संकल्प-भाव उत्पन्न न हो,
संकल्प-भाव तब तक उत्पन्न नहीं होता जब तक उसका मस्तिष्क शक्ति-सम्पन्न न हो.
मस्तिष्क शक्ति-सम्पन्न वहाँ कैसे होगा काया मनुष्य की जहाँ पूर्ण जर्जर होगी,
सभ्यता वहाँ कैसे जिन्दा रह पायेगी सम्पूर्ण जाति की जाति  जहाँ बर्बर होगी.

यह वही देश है जहाँ शिवा ने जन्म लिया प्रणवीर प्रताप जहाँ जंगल में भटका था,
पिस्तौल-कलम का धनी शायरे-इन्कलाब बिस्मिल अंग्रेजों की आँखों में खटका था.
करके काकोरी-काण्ड समूचे शासन की चूलों को जड़ तक उसने ऐसा हिला दिया,
खुद खाक भले हो गया मगर बलि देकर के अंग्रेज-राज्य मिट्टी में उसने मिला दिया.

आज़ाद चन्द्रशेखर का लोहा मान गये थे बड़े-बड़े अंग्रेज सिपाही अधिकारी,
बेशक शरीर पर अनगिन कोड़े पड़े मगर था भगत सिंह जो बना गवाह न सरकारी.
किस मिट्टी के थे बने हुए वे कर्मवीर जो झुके नहीं जुल्मों के आगे टूट गये,
हम हैं जिनको ऐश्वर्य गुलाम बनाये है, है यही वजह जो हम सब पीछे छूट गये.

आज का युवक भोगों के पीछे अन्धा हो भागता जा रहा तेजी से मुँह बाये है,
अपनी संस्कृति को भुला विवश नादानी में वह नक़ल विदेशी लोगों की अपनाये है.
हो रहा देश में क्या इसका कुछ पता नहीं उसको अपने व्यापारों से अवकाश कहाँ?
जो जैसा चाहे जब-जब जहाँ-जहाँ चाहे वह करता जाये इसकी उसे तलाश कहाँ?

उसका है केवल एक काम आश्रय पाना चाहे वह सही गलत कैसे भी मिल पाये,
मतलब निकले तो गधा बाप बन सकता है बस किसी तरह से उल्लू सीधा हो जाये.
इस इतने बड़े राष्ट्र में नायक एक नहीं सब के सब अपनी ही छबि के उन्नायक हैं,
कवियों में विरले हैं जो सच कह पाते हैं वर्ना अधिकाँश विदूषक हैं या गायक हैं.

यदि हम चाहें यह राष्ट्र परम वैभव पाये तो संस्कार मय जन-जन को होना होगा,
अन्यथा राष्ट्र अब तक खोता ही आया है अपने गुरुत्व को आगे भी खोना होगा.

Friday, July 8, 2011

Devil of Democracy

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Monday, July 4, 2011

India will never prosper unless ?

भारत का तब तक उत्थान न होगा.

जब तक यहाँ शहीदों का समुचित सम्मान न होगा,
निश्चित समझो तब तक भारत का उत्थान न होगा.

वेदों ने बलिदान शब्द को मुक्त कंठ से गाया,
यज्ञों में मानव आहुति को सर्वश्रेष्ठ बतलाया.
सत्य अहिंसा के बल पर हमने आज़ादी पायी,
यह असत्य परिभाषा हमको अब तक गयी पढ़ायी.

जिनके पौरुष और पराक्रम ने यह दिन दिखलाया,
उन सबको षड्यन्त्र पूर्वक अब तक  गया मिटाया.

गान्धी ने सन बाइस में जब आन्दोलन रुकवाया,
तब कुछ क्रान्तिकारियों ने अपना संगठन बनाया.
एक जनवरी सन पच्चिस को इश्तहार छपवाया,
कैसा परिवर्तन होगा विस्तार सहित बतलाया.

अंग्रेजों को अंग्रेजी में लिखकर यह समझाया,
भारत छोडो बरना समझो काल तुम्हारा आया.

नौ अगस्त पच्चिस को काकोरी में किया धमाका,
खुली चुनौती देकर जिसने ब्रिटिश राज्य को हाँका.
हिन्दुस्तानी प्रजातन्त्र का संविधान निर्माता,
बलिदानी प्रेरणा-श्रोत ग़ज़लों का वह उद्गाता.

अपनी आहुति देकर उसने ऐसी आग लगायी,
गान्धी  की तमाम कोशिश के बाद न जो बुझ पायी.

आखिर सत्रह साल बाद उन्नीस सौ ब्यालिस आया,
अंग्रेजों के नाम खुला ख़त गान्धी ने भिजवाया.
उसमें लिक्खा-"सभी पढ़ें जो चिट्ठी मैंने दी है,
मैं हूँ वह नाकिस जिसने तुम सबकी रक्षा की है.

बीस साल तक भीख माँगकर मैंने क्या पाया है,
वह मेरी गलती थी मुझको आज समझ आया है.

तुम लातों के भूत बात  से  नहीं  मानने  वाले, 
अब मैं कहता हूँ- जिसको जो करना हो कर डाले."
काश! यही ख़त सन बाइस में गान्धीजी भिजवाते,
तो इतने सारे शहीद क्यों अपनी जान गँवाते.

इससे तो यह सिद्ध हुआ बिस्मिल की बात सही थी,
अंग्रेजों का भूत भगाने की बस दवा यही थी.

गान्धी ने सर्वथा दोगली नीति यहाँ अपनायी,
पहले आग लगायी फिर फायर ब्रिगेड पहुँचायी.
जिससे वायसराय कभी नाराज न होने पाये,
और छोड़ना पड़े देश तो गान्धी को दे जाये.

वही हुआ जब सैंतालिस में मिली हमें आज़ादी,
टुकड़ों में बँट गया देश नफरत ऐसी फैला दी.

लोकतन्त्र की खाल ओढ़कर वंशवाद घुस आया,
राष्ट्रपिता के पुत्रों ने गान्धी का नाम भुनाया.
गोरखपुर में बिस्मिल की अन्त्येष्टि जहाँ पर की थी,
उस स्थल को राजघाट की संज्ञा सबने दी थी.

गान्धी के मानस पुत्रों ने की कैसी चतुराई,
बिस्मिल को विस्मृत करने की विस्तृत नीति बनाई.

भारत छोड़ो आन्दोलन महिमामंडित करवाया,
गान्धी की समाधि पर सुन्दर राजघाट बनवाया.
'काकोरी षड्यन्त्र काण्ड' को भूले भारतवासी,
गोरखपुर के राजघाट की रही न याद जरा सी.

नौ अगस्त सन ब्यालिस के स्टेच्यू बने हुए हैं,
आगे-आगे गान्धी पीछे चमचे तने हुए हैं.

बिस्मिल औ' अशफाक किसी का कोई नाम नहीं है,
पूछो तो कहते हैं इनका कोई काम नहीं है.
सन उन्निस सौ बाइस में जब गान्धी जा दुबके थे,
तब कुछ सरफ़रोश ही थे जो सूरज से चमके थे.

अगर उस समय बिस्मिल औ' अशफाक न आगे आते,
निश्चित समझो अब तक हम आजाद नहीं हो  पाते.

आज समूचा देश क्रान्ति की भाषा भूल चुका है,
लोकतन्त्र की अर्थवान परिभाषा भूल चुका है.
देश-धर्म पर मर मिटने का जज्वा आज नहीं है,
सरफ़रोश लोगों का वैसा मजमा आज नहीं है.

जब तक बिस्मिल जैसे युवकों का गुणगान न होगा,
निश्चित समझो तब तक भारत का उत्थान न होगा.



Saturday, July 2, 2011

Country or a tool ?

देश है या झुनझुना?

क्या यही दिन देखने को था तुम्हें हमने चुना,
जिस तरह चाहो बजा लो देश है या झुनझुना?

ताक पर रखकर नियम क़ानून सारे क़ायदे,
सो गया जनतन्त्र सिरहाने लगाकर वायदे;
आदमी है सिर्फ़ वोटर-लिस्ट का पन्ना घुना,
जिस तरह चाहो बजा लो देश है या झुनझुना?

हैं विदेशी साजिशें फिर देश में सुरसा मुखी,
धर्म का धारक सकल सामान्य जन सबसे दुखी;
भूख का हल खोजते हैं पेट रखकर कुनमुना,
जिस तरह चाहो बजा लो देश है या झुनझुना?

गोल बैंगन की तरह जो थालियों में आ गये,
दर असल वे लोग ही यह लोकतन्त्र पचा गये;
आम जनता की समस्या को यहाँ किसने सुना,
जिस तरह चाहो बजा लो देश है या झुनझुना?