Sunday, August 28, 2011

The snake has gone to the Bill

काला पीला

कांग्रेस ने कर लिया, काम अपना चुपचाप.
लोकपाल बिल में घुसा, भ्रष्टाचार का साँप.

काला धन हो जायेगा ,  पीला अपने आप.
तीन माह बिल में छुपा, बिठा दिया है  साँप.

सोना अब हो जायेगा , यहाँ  पचास हजार.
धन तेरस का आ रहा, कातिक में त्यौहार.

स्विस बैंक में जो जमा, सारा लिया निकाल.
अन्ना को संग्राम में , इधर बनाकर ढाल.

डॉ.'क्रान्त' एम० एल० वर्मा 

Friday, August 26, 2011

A Tribute to Shaheed Arun Dass

श्रद्धासुमन शहीद अरुणदास को
         
 वतन पर मरने वाले क्या नहीं ईसार करते हैं
    जमीं के जर्रे -जर्रे से वो इतना प्यार करते हैं.
          कि मर जाने पे भी उनकी तडपती रूह कहती है-
               "रजज को बन्द कर दो ये हमें बेजार करते है."
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                                        शब्दार्थ: ईसार=त्याग, रजज=रणभेरी
           डॉ.'क्रान्त' एम० एल० वर्मा  

Congress Conceals Corruption


भ्रष्टाचार का भस्मासुर
डॉ० 'क्रान्त' एम० एल० वर्मा

आज़ादी के बाद देश में  भ्रष्टाचार  बढ़ा  है ।
लोकतन्त्र के साये में कुल का आकार बढ़ा है॥

भारत भ्रष्टाचार राशि दोनों की एक रही है ।
काँग्रेस के साथ करप्शन का भी हाल यही है॥

पहले केवल हरे नोट पर गान्धीजी आये थे।
उसके  माने  काँग्रेस ने ही यह बतलाये थे॥

चपरासी बाबू अफसर जब दफ्तर में तन जाये।
हरा नोट दिखला दो बिगड़ा हुआ काम बन जाये॥

आम आदमी को पहले इसकी आदत डलवायी ।  
उस के बाद करप्शन की सरकारी लिमिट  बढ़ायी ॥

दस के बाद पचास बाद में सौ पर  बापू आये ।
उसके बाद करप्शन ने अपने जौहर दिखलाये ॥

काँग्रेस ही सूटकेस की धाँसू  कल्चर  लायी ।
बापू की तस्वीर पाँच सौ के नोटों पर आयी॥

दो गड्डी में पेटी भर का काम निकल जाता है।
लेन देन का धन्धा भी सुविधा से चल जाता है॥

अब  तो चिदम्बरम साहब  चश्में को पोंछ रहे हैं।
भ्रष्टाचार  घटाने  की  तरकीबें  सोच  रहे  हैं ॥

बड़े-बड़ों के घर आये  दिन छापे  डाल रहे हैं ।
गान्धी बाबा गड़े हुए हैं उन्हें निकाल रहे हैं ॥

पहले सारा गड़ा हुआ   धन  ये बाहर ले आये  ।
फिर  हजार के नोटों पर गान्धीजी  को छपबाये ॥

पेटी अब पैकेट बनकर पाकेट में आ जाती है।
सोन चिरैया भारत में अब नजर नहीं आती है॥

लालू एक हजार कोटि की सीमा लाँघ चुके हैं।
नरसिम्हा चन्द्रास्वामी सब इसे डकार चुके हैं॥

माया के चक्कर में बी.जे.पी. ने साख गँवाई।
छ: महिने में माया ने अपनी माया दिखलाई॥

गली- गली नुक्कड़-नुक्कड़ चौराहे-दर-चौराहे।
बाबा साहब  भीमराव के  स्टेचू  गड़वाए ॥

नोटों पर गान्धी बाबा ने अपना रंग दिखाया ।
चौराहे पर    बाबा साहब ने  वोटर  भरमाया ॥

स्विस-लाण्ड्री से जिनके कपड़े धुलकर आते  थे।
और मौज मस्ती को जो स्वित्ज़रलैंड जाते  थे॥

काँग्रेस ने उनसे इन्ट्रोडक्शन करा लिया है।
नाती-पोतों के खातों का मजमा लगा दिया है॥

रानी की शह पाकर ए.राजा ने हद कर डाली।
कलमाड़ी के कीर्तिमान की कली-कली चुनवा ली॥

मनमोहन बन भीष्म बैठकर नाटक देख रहे हैँ।
चीर- हरण हो रहा और वे आँखें सेंक रहे हैँ ॥

अब तक ६३  सालों में जो कुछ हमने पाया है।
वह सब विश्व बैंक के चैनल से होकर आया है॥

काँग्रेस   का    बीज    यहाँ   अँग्रेजों    ने    बोया   था ।
जिसके  कारण भारत का जो स्वाभिमान खोया था॥

उसको कर्म-क्रान्ति के द्वारा  फिर वापस लाना है।
'क्रान्त'  का ये  सन्देश  आपको  घर-  घर पहुँचाना है ॥

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Monday, August 22, 2011

Hunger strike in the jail by Kakori Prisoners

Hunger strike in the jail
As per Kakori Conspiracy Case file the Judgement was given on 6th of April 1927 at Lucknow.After the final judgement of court the Group Photograph of condemned prisoners alongwith other accused was taken and all the accused were sent to the different jails of United Province. They were asked to put off their cloths and wear the jail dress like other prisoners. All the accused revolutionaries protested this jail order and started hunger strike on the first day. Their plea was quite genuine. They argued that since the all have been charged to overturn the British Rule and have been punished under section 120(B) & 121(A) hence they should be treated as Political Prisoners and provided the same facilities in the Jails.
The details of their hunger stike are given hereunder
Name of the Prisoner
Name of the Jail
Days
Ram Prasad BismilGorakhpur Central Jail
5
Roshan SinghAllahabad Jail
6
Ram Nath PandeyRaibareli District Jail
11 
Prem Krishna KhannaDehradun District Jail
16
Suresh Chandra BhattacharyaAgra Central Jail
19 
Ram Krishna KhatriAgra Central Jail
32 
Mukundi LalBareilly District Jail
32 
Raj Kumar SinhaBareilly District Jail
38 
Jogesh Chandra ChatterjeeFatehgarh Jail
41
Ram Dulare TrivediFatehgarh Jail
41
Govind Charan KarFatehgarh Jail
41
Manmath Nath GuptaNaini Allahabad Jail
45 
Vishnu Sharan DublishNaini Allahabad Jail
45
Those who want to see more informations they may see English Wikipedia by clicking the following link:

ऊपर दिये गये चित्र में क्रान्तिकारियों के नाम इस प्रकार हैं:


१.योगेशचन्द्र चटर्जी, २.प्रेमकृष्ण खन्ना, ३.मुकुन्दीलाल,४.विष्णुशरण दुबलिश, ५.सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य,६.रामकृष्ण खत्री,७.मन्मथनाथ गुप्त, ८.राजकुमार सिन्हा,९.ठाकुर रोशनसिंह,१०.पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल',११.राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, १२.गोविन्दचरण कर,१३.रामदुलारे त्रिवेदी,  १४.रामनाथ पाण्डेय,१५.शचीन्द्रनाथ सान्याल,१६.भूपेंद्रनाथ सान्याल,१७.प्रणवेशकुमार चटर्जी.

































































Saturday, August 13, 2011

A poet's message to P.M.

रक्षा-बन्धन पर विशेष सन्देश
राष्ट्र- रक्षा का संकल्प

नक़ल करें तो सत्य की, अपनायें तो धर्म.
प्रीति करें तो कर्म से, समझ सकें तो मर्म.

सात कोस चौबीस गज, दस फुट के दरम्यान.
बेगम हुक्म चला रहीं, बादशाह प्रेशान?

सात कोस चौबीस गज, दस फुट तीनों नाप.
चौरासी लख योनि का, काट फटाफट पाप.

दसवें गुरु के बाद अब, तू बन जा इतिहास.
बन्दा वैरागी तुझे दिखला रहा प्रकाश.
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संकेत: सात कोस=7  रेस कोर्स रोड (प्रधान मन्त्री निवास), चौबीस गज =24  अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय), दस फुट= 10   जनपथ (कांग्रेस अध्यक्ष का निवास), प्रेशान=परेशान का पंजाबी उच्चारण

7  कोस=55440  फुट : 24  गज=72  फुट : 10  फुट=10 फुट. अनुपात=5544 :7.2 :1 
बादशाह=डॉ० मनमोहन सिंह, बेगम=सोनिया गान्धी,  हुक्म=कांग्रेस-अध्यक्ष
ताश के  पत्तों में बादशाह बेगम और हुक्म के पत्तों का क्या स्थान है इसे ध्यान में रखें.
 


Monday, August 8, 2011

Historical Kakori Conspiracy Case of 1925

ऐतिहासिक काकोरी काण्ड
( ९ अगस्त पर विशेष लेख ) 

जनवरी १९२३ में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में 'रिवोल्यूशनरी पार्टी' का ऐलान कर दिया। सितम्बर १९२३ में दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे अन्यथा देश में लोकतन्त्र के नाम पर लूटतन्त्र हावी हो जायेगा। देखा जाये तो उस समय उनकी यह बड़ी दूरदर्शी सोच थी। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल, जो उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे, राम प्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में स्वामी सोमदेव के समय से ही थे। लाला जी ने ही पत्र लिखकर राम प्रसाद बिस्मिल को शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी।  लाला जी की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद गये और शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। इस बात का जिक्र सान्याल जी के छोटे भाई जितेन्द्र नाथ सान्याल ने अपनी पुस्तक अमर  शहीद सरदार भगतसिंह में किया है।

नवगठित पार्टी का नाम संक्षेप में एच० आर० ए० रक्खा गया व इसका संविधान पीले रँग के पर्चे पर टाइप करके सदस्यों को भेजा गया। ३ अक्तूबर १९२४ को इस पार्टी (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन) की एक कार्यकारिणी-बैठक कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। इस बैठक में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गये। पार्टी के लिये फण्ड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का तरीका अपनाया गया और पार्टी की ओर से पहली डकैती २० दिसम्बर १९२४ को बमरौली में डाली गयी जिसका कुशल नेतृत्व बिस्मिल ने किया था इसका उल्लेख मन्मथनाथ गुप्त   की कई पुस्तकों में मिलता है।

'दि रिवोल्यूशनरी' (घोषणा-पत्र) का प्रकाशन

क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के पैम्फलेट दि रिवोल्यूशनरी में राम प्रसाद बिस्मिल ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचार-धारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गान्धी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? उन्होंने हिन्दुस्तान के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेषी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल होने और पार्टी में शामिल हो कर अँग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आवाहन किया था। दि रिवोल्यूशनरी के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इस घोषणापत्र में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन को आज भी भली-भाँति समझा जा सकता है। स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास  (ग्रन्थावली) के भाग-तीन में पृष्ठ ६४४ से ६४८ तक इस पत्र का अविकल 'हिन्दी काव्यानुवाद' व सरफरोशी की तमन्ना (ग्रन्थावली) के भाग-एक में पृष्ठ १७० से १७४ तक इसका मूल 'अँग्रेजी पाठ' कोई भी व्यक्ति या शोध छात्र दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाकर देख सकता है।
काकोरी-काण्ड की पृष्ठभूमि   

'दि रिवोल्यूशनरी' नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह पैम्फलेट अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच०आर०ए० के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं किन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका।

इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अपार कष्ट हुआ। अन्ततः उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे।

शाहजहाँपुर में उनके घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन  से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिडी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), मुरारीलाल तथा बनवारीलाल  ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी आटोमेटिक राइफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये रिवाल्वर आज की ए०के०-४७ की तरह चर्चित थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सी०आई०डी० इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।

गिरफ्तारी और अभियोग

सी०आई०डी० ने सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि 'काकोरी ट्रेन डकैती' क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये ? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच०आर०ए० का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

इसके पूर्व भी जैसा कि लिखा जा चुका है काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारीलाल, केशव चक्रवर्ती (केशव बलिराम हेडगेवार का छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को 'एच० आर० ए० का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्टेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी और केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये।

बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था और बिस्मिल ने, जो उस समय जिला काँग्रेस कमेटी के ऑडीटर थे, बनारसी पर पार्टी-फण्ड में गवन का आरोप सिद्ध करते हुए काँग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया था। बाद में जब गांधी जी १६ अक्तूबर १९२० (शनिवार) को शाहजहाँपुर आये तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रक्खा। गान्धी ने यह कहकर कि "छोटी-मोटी हेरा-फेरी को इतना तूल नहीं देना चाहिये", इन दोनों में सुलह करा दी।  बनारसी बड़ा ही धूर्त आदमी था उसने पहले तो बिस्मिल से माफी माँग ली फिर अलग जाकर गांधी जी को यह बता दिया कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है, वे इसकी किसी बात का न तो स्वयं विश्वास करें न ही किसी और को करने दें। आगे चलकर इसी बनारसी लाल ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी-मीठी बातों से पहले तो उनका विश्वास अर्जित किया बाद में उनके साथ कपड़े के व्यापार में साझीदार भी बन गया। जब बिस्मिल ने गान्धी  की आलोचना करते हुए अपनी अलग पार्टी बना ली तो बनारसी लाल अत्यधिक प्रसन्न हुआ और मौके की तलाश में चुप साधे बैठा रहा। पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को अप्रूवर (सरकारी गवाह) बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी ऐसी-ऐसी गोपनीय बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। इस का उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। यह आत्मकथा हिन्दी विकीसोर्स पर भी उपलब्ध है.

लखनऊ जेल में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रक्खा गया और हजरतगंज चौराहे के पास 'रिंग थियेटर' नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया। रिंग थियेटर नाम की यह बिल्डिंग कोठी हयात बख्श और मल्लिका अहद महल के बीच हुआ करती थी जिसमें ब्रिटिश अफसर आकर फिल्म व नाटक आदि देखकर मनोरंजन किया करते थे। इसी 'रिंग थियेटर' में लगातार १८ महीने तक 'किंग इम्परर वर्सेस राम प्रसाद 'बिस्मिल' एण्ड अदर्स' के नाम से चलाये गये इस ऐतिहासिक मुकदमे का नाटक करने में ब्रिटिश सरकार ने १० लाख रुपये उस समय खर्च किये जब सोने का मूल्य २० रुपये तोला (१२ ग्राम)  हुआ करता था। इससे अधिक मजेदार बात यह हुई कि ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश से यह बिल्डिंग भी बाद में ढहा दी गयी और उसकी जगह सन् १९२९-१९३२ में जी०पी०ओ० लखनऊ के नाम से एक दूसरा भव्य भवन ब्रिटिश सरकार खडा कर गयी। १९४७ में जब देश आजाद हो गया तो यहाँ गांधी जी की भव्य प्रतिमा स्थापित करके रही सही कसर हमारे देशी हुक्मरानों ने पूरी कर दी। जब केन्द्र में गैर काँग्रेसी जनता सरकार का पहली बार गठन हुआ तो उस समय के जीवित क्रान्तिकारियों के सामूहिक प्रयासों से सन् १९७७ में आयोजित 'काकोरी शहीद अर्द्धशताब्दी समारोह' के समय यहाँ पर 'काकोरी स्तम्भ' का अनावरण उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गणपतिराव देवराव तपासे ने किया ताकि उस स्थल की स्मृति बनी रहे।
 
इस ऐतिहासिक  मुकदमे में सरकारी खर्चे से हरकरननाथ मिश्र को क्रान्तिकारियों का वकील नियुक्त किया गया जबकि जवाहरलाल नेहरू के साले जगतनारायण 'मुल्ला' को एक सोची समझी रणनीति के अन्तर्गत सरकारी वकील बनाया गया जिन्होंने अपनी ओर से सभी क्रान्तिकारियों को कड़ी से कडी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी न रक्खी। यह वही जगतनारायण थे जिनकी मर्जी के खिलाफ सन् १९१६ में बिस्मिल ने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की भव्य शोभायात्रा पूरे लखनऊ शहर में निकाली थी। इसी बात से चिढकर मैनपुरी षडयंत्र में इन्ही मुल्लाजी ने सरकारी वकील की हैसियत से जोर तो काफी लगाया परन्तु वे राम प्रसाद बिस्मिल का एक भी बाल बाँका न कर पाये थे क्योंकि मैनपुरी षडयंत्र में बिस्मिल फरार हो गये थे और पुलिस के हाथ ही न आये।

फाँसी की सजा और अपील

६ अप्रैल १९२७ को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने ११५ पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये गये आरोपों पर विचार करते हुए यह लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का कोई वचन ही दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। किन्तु इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है।

फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी। स्पेशल जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में काकोरी कांस्पिरेसी का 'सप्लीमेण्ट्री केस' दायर किया गया और १३ जुलाई १९२७ को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी  पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त,जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से  उन्होंने साफ मना कर दिया। बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से यह पूछना पड़ा- "मिस्टर रामप्रसाड! फ्रॉम भिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला?" (राम प्रसाद! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली?) इस पर बिस्मिल ने हँस कर कहा था- "एक्सक्यूज मी सर! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।" (क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।)

अदालत ने उनके इस जबाव से चिढकर बिस्मिल की १८ जुलाई १९२७ को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी बिस्मिल को नहीं। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार शर्तिया केस हार जाती।

चीफ कोर्ट में शचीन्द्रनाथ सान्याल, भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। २२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई०पी०सी० की दफा १२१(ए) व १२०(बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल,जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत् (७-७ वर्ष) रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया।

चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के सभी फाँसी (मृत्यु-दण्ड) प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सूचना दी। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय प्रान्त के गवर्नर थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया किन्तु उसने उसे अस्वीकार कर दिया।

सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला  में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा जिस पर प्रमुख रूप से पं० मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन० सी० केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त, आदि ने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ। अन्त में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः जजमेण्ट पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया। अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस० एल० पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जायेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।

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